पूना में 48 वर्षीय व्यक्ति नें आज तड़के जात पंचायत के द्वारा सामाजिक बहिष्कार किए जाने के बाद कथित रूप से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार पुलिस ने इस व्यक्ति की पहचान गवली समुदाय के अरुण नाइकूजी के रूप में की है।
पुलिस के अनुसार कथित रूप से मृतक और उसके परिवार का जात पंचायत द्वारा पिछले 2 सालों से सामाजिक बहिष्कार किया जा रहा था। इसका कारण मृतक के भाई द्वारा गवली समुदाय के एक युवक की अन्य जाति की लड़की से शादी करने में मदद करना बताया जा रहा है।
पिछले 2 सालों से अरुण और उसके परिवार को किसी भी सामुदायिक और सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेने दिया जा रहा था। रविवार को अरुण ने जात पंचायत से इसका कारण जानना चाहा, तो उन्हें वहां से बेइज्जत कर निकाल दिया गया।
चन्दन नगर पुलिस स्टेशन के एक पुलिस ऑफिसर ने बताया कि, “जात पंचायत के सामाजिक बहिष्कार और बेइज्जती के कारण अरुण काफी परेशान हो गए थे, जिस कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली।” उन्होंने बताया कि, “इस मामले में हमनें वीरशैव लिंगायत गवली समाज जात पंचायत के वहप्पा पेलवान, मन्कप्पा औरंगे, विट्ठल पेलवान, किसन जनुबस और अन्य सदस्यों के खिलाफ आइ.पी.सी. की धाराओं 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना), और 34 (सामूहिक रूप से अपराध करना) के तहत अपराधिक मामला दर्ज किया है।”
पूना में हुई इस घटना से जाति व्यवस्था का एक और पहलु सामने आता है, जिसमें ना केवल अन्य जातियों से मेलजोल और रिश्ते बनाना वर्जित किया जाता है, बल्कि ऐसे नियमों को ना मानने वालों को हतोत्साहित करने के लिए सामाजिक बहिष्कार जैसे कदम भी उठाए जाते हैं।
महाराष्ट्र राज्य में और देश के अन्य इलाकों में पहले भी जात पंचायतों के द्वारा लोगों के सामाजिक बहिष्कार की घटनाएं सामने आई हैं। 23 अप्रैल 2016 को महाराष्ट्र देश का पहला ऐसा राज्य बना जहाँ व्यक्ति विशेष या परिवार या कुछ लोगों के समूह का किसी व्यक्ति या जात पंचायत के द्वारा, सामाजिक बहिष्कार किया जाना गैरकानूनी करार दे दिया गया। महाराष्ट्र प्रोहिबिशन ऑफ़ सोशल बायकाट के नाम से विधानसभा में पारित हुए इस बिल के अनुसार, दोषी पाए जाने पर मुजरिम को 3 साल तक की सजा या एक लाख रूपए का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
महाराष्ट्र में इस बिल को लेकर काफी लम्बे समय से संघर्ष किया जा रहा था। सन 1949 में दाऊदी बोहरा समाज के प्रमुख द्वारा, बम्बई राज्य द्वारा लाए गए बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ एक्सकम्युनिकेशन एक्ट को धार्मिक आजादी में दखल बताकर इसका विरोध किया, और इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इसके बाद 1962 में सुप्रीम कोर्ट नें इस केस की सुनवाई कर रही बेंच में मतभेद होने के बाद इस एक्ट पर रोक लगा दी थी। कोर्ट के फैसले पर फिर से विचार करने की याचिका 1986 से लंबित थी।