शुक्रवार 26 अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट नें एक फैसले में, एक निजी (प्राइवेट) स्कूल को अक्षमता से झूज रहे एक बच्चे को एडमिशन देने का निर्देश दिया है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार सिद्धार्थ इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल की एक याचिका पर कोर्ट ने यह फैसला सुनाया। स्कूल ने मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स ट्रिब्यूनल (एम्.ए.सी.टी.) के द्वारा बच्चे को स्कूल में एडमिशन देने के आदेश पर, स्कूल के एम्.ए.सी.टी. के अधिकार क्षेत्र से बाहर होने की बात पर याचिका दायर की थी। गौरतलब है कि यह बच्चा एक बस से एक्सीडेंट होने के बाद अपने दोनों पैर खो चुका है।
भारत में सम्मिलित शिक्षा यानि की सभी बच्चों के साथ में पढ़ने की व्यवस्था अभी भी दूर के कौड़ी नज़र आती है। किसी भी स्कूल में पढ़ना हर बच्चे का संवैधानिक अधिकार है। और इसके लिए दिल्ली सरकार नें हर निजी स्कूल में प्राइमरी कक्षाओं में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (जिनकी आय प्रतिवर्ष एक लाख रूपए से कम हो) और वंचित श्रेणी के बच्चों (जिनमें अनुसूचित जाति/जनजाति (एस.सी./एस.टी.), अन्य पिछड़ी जाति (ओ.बी.सी.), अनाथ, अक्षमता से झूज रहे बच्चे और ट्रांसजेंडर (किन्नर) बच्चे आते हैं) के लिए 25% सीटों की व्यवस्था की है। यह व्यवस्था शिक्षा के अधिकार यानि की राईट टू एजुकेशन के अंतर्गत की गयी है।
जाहिर है की इन सरकारी आदेशों का पालन निजी स्कूल पूरी तरह से नहीं कर रहे हैं। पूर्व में भी निजी स्कूलों द्वारा वंचित श्रेणी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आने वाले बच्चों को एडमिशन ना देने की घटनाएं सामने आई हैं। इससे पर्व इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में भी गुडगाँव के 19 बड़े निजी स्कूलों द्वारा गरीबी रेखा से नीचे के बच्चों को एडमिशन ना देने की बात सामने आई थी। अब सवाल ये है की कानून होने के बाद भी, निजी स्कूल इसका पालन क्यूँ नहीं कर रहे हैं।
इनके पीछे कई कारण गिनाए जाते हैं। विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए स्कूली ढांचे में कमियों की बात कही जाती है, टीचरों के कुछ बच्चों पर ध्यान देने से अन्य बच्चों पर प्रभाव पड़ना भी इसमें गिनाया जाता है। लेकिन भारी भरकम फीस वसूलने वाले स्कूलों में विशेष जरूरतों वाले बच्चों के लिए सुविधाएँ क्यों नहीं उपलब्ध कराई जाती ये सोचने वाली बात है।
शिक्षा हर बच्चे का मौलिक अधिकार है और केवल किताबी शिक्षा को ही शिक्षा नहीं कहा जा सकता, अन्य बच्चों के साथ उठाना बैठना, उनसे संवाद करना और अलग-अलग गतिविधियों में हिस्सा लेना शिक्षा का ही हिस्सा है। ऐसे में केवल कानून से ही बदलाव या सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। हमें अपने साथ-साथ अन्य बच्चों को भी संवेदनशील बनाना होगा, ताकि हर बच्चे को बराबरी के अवसर मिल सकें।