Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.
तकरीबन 4 महीनों से ज्यादा का समय हो चुका है जबसे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) पर दक्षिणपंथी विचारधारा (राईट विंग आइडियोलॉजी) के लोगों ने तरह-तरह के आरोप लगाना शुरू किया है। आतंकियों के गढ़ से लेकर कंडोमों का ढेर घोषित की जा चुकी यह यूनिवर्सिटी इस साल फरवरी से, कैंपस में तथाकथित राष्ट्रविरोधी नारे लगने के बाद से ही भारत के गुस्से का केंद्र रही। साथ ही शुरू हुई भारतीय राष्ट्रवाद पर 70 साल पहले हुए असल राष्ट्रवादी आन्दोलन के बाद की सबसे बड़ी बहस। इसी मुद्दे पर एक किताब आयी “ऑन नेशनलिज्म”।
यह किताब तीन निबंधों का संग्रह है जिन्हें, ख्यातिप्राप्त इतिहासकार और जे.एन.यू. की रिटायर्ड प्रोफेसर रोमिला थापर, आर्ट एडिटर (कला संपादक) सदानंद मेनन और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व अधिवक्ता (एडवोकेट) ए.जी. नूरानी ने लिखा है। यह किताब राष्ट्रद्रोह (सेडिशन), राष्ट्रवाद (नेशनलिज्म) और भारत में धार्मिक टकराव (रिलीजियस कनफ्लिक्ट) के अलग-अलग लेकिन आपस में जुड़े हुए मुद्दों पर बात करती है।
किताब की शुरुवात रोमिला थापर के निबंध से होती है जो राष्ट्रवाद क्या है और जो अभी भारत में महसूस किया जा रहा है, वह क्या है पर उनके विचारों को सामने रखता है। अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के बारे में तो हम सभी जानते हैं लेकिन इसके बाद जो हुआ वह कहीं ज्यादा रोचक है। थापर कहती हैं, [envoke_twitter_link]भारत में गलत राष्ट्रवाद पनप रहा है जो दक्षिणपंथी हिन्दू विचारधारा के लोगों की देन है।[/envoke_twitter_link] साथ ही वो हिंदूवादी विचारधारा की भ्रामक जानकारियों पर भी तीखा प्रहार करती हैं। अगर वो कहते हैं कि प्राचीन भारत में संस्कृत सबसे प्रमुख भाषा थी तो थापर, प्राकृत के सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली भाषा के तथ्य को सामने रखती हैं। अगर वो मुस्लिम शाशन के दौरान हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों की बात करते हैं तो थापर मुग़ल काल में हुए खूबसूरत सांस्कृतिक मेल-जोल को सामने रखती हैं। और साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप (इंडियन सबकॉन्टिनेंट) में हिंदुत्व के जन्म पर भी थापर कुछ बातें सामने रखती हैं।
थापर के निबंध को पढने के बाद, आपको एहसास होता है कि देश के इतिहास को समय-समय पर लोकप्रिय और पवित्र बताए जाने वाले किस्सों से अलग करके देखना कितना जरुरी है। यही बात हमारी न्याय प्रक्रिया और कानूनों के इतिहास पर भी लागू होती है।
किताब का अगला हिस्सा, भारत के सन्दर्भ में राष्ट्रद्रोह पर नूरानी के ब्रिटिश काल से अब तक के अध्ययन पर आधारित निबंध है। सेक्शन 124A (राष्ट्रद्रोह या सेडिशन) और सेक्शन 377 में काफी समानताएं हैं जो समलैंगिकता को एक अपराध घोषित करता है। यह दोनों ही एक विदेशी सत्ता की सोच पर का नतीजा हैं, और यूरोपीय नैतिकता के मानकों पर आधारित हैं। जब सत्ता और प्रशासन, केदार नाथ सिंह, बिनायक सेन, असीम त्रिवेदी, उमर खालिद, कन्हैया कुमार और अनिरबन भट्टाचार्य जैसे लोगों पर राष्ट्रद्रोह के आरोप लगता है तो कहीं न कहीं वो देश के नागरिकों से बिना सोचे समझे उसके आदेशों का पालन करने की भी मांग करता है। नूरानी हमें याद दिलाते हैं कि 1870 में ब्रिटिश शाशन की उम्मीदों और शर्तों से यह अलग नहीं है। अगर सेक्शन 124A के शब्दों की बात की जाए तो यह सत्ता और प्रशासन के प्रति स्नेह ना रखने वालों और उसके प्रति विरोध की भावना फैलाने वालों को निशाना बनाता है। नूरानी लिखते हैं, “कोई भी आत्म सम्मान की भावना रखने वाला लोकतंत्र उसके नागरिकों से स्नेह की मांग नहीं करेगा।” वो आगे लिखते हैं, “राजशाही की ऐसी मांगें होती हैं।”
गुलाम भारत के सत्ताधारी वर्ग (ब्रिटिश) और वर्तमान सत्ताधारी वर्ग (दक्षिणपंथी भारत सरकार) की ये तुलना काफी दिलचस्प है। साथ ही साथ यह तुलना दुर्भाग्यपूर्ण भी है क्यूंकि पूर्व में भारत के मुस्लिम शाशक वर्ग का हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लोग भी इसी आधार पर लगातार विरोध करते रहे हैं।
अगर थापर का निबंध इस विचार को पूरी तरह से खारिज करता है तो मेनन, हिन्दूओं और मुस्लिमों के बीच टकराव की स्थिति के बनाए जाने के इतिहास को समझाते हैं- शुरुवात में ब्रिटिश शासकों द्वारा और फिर बाद में अलग-अलग उग्रवादी धार्मिक दलों द्वारा। मेनन इस प्रक्रिया को ‘संस्कृतिक राष्ट्रवाद (कल्चरल नेशनलिज्म)’ का नाम देते हैं जिसका लक्ष्य “सिविल सोसाइटी को ,लगातार किए जा रहे हमलों से सतत संघर्ष की स्थिति में बनाए रखने” का है। मेनन समझाते हैं कि कैसे देश की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और यहाँ तक कि नैतिक छवि पर हिन्दू पुरुषों का पूरा नियंत्रण है। इसके द्वारा जानबूझकर अन्य समुदायों खासतौर पर दलित, महिला और मुस्लिम समुदायों के पक्ष को अलग-थलग रखा गया है। मेनन लिखते हैं कि, “इतिहास में कुछ भी शुद्ध (प्योर) नहीं रहता” यह एक महत्वपूर्ण बयान है जिससे साफ़ होता है कि हिन्दू समाज की (नस्लीय)शुद्धता और इसके दूषित हो जाने को लेकर होने वाले टकराव, भारत की संस्कृति और इतिहास की ख़ास जानकारी देते हैं।
अब सवाल ये उठता है कि [envoke_twitter_link]साम्प्रदायिकता, जाति आधारित हिंसा, और पुरुषवाद की बुनियाद पर किस तरह का राष्ट्रवाद पनपता है?[/envoke_twitter_link] साफ़ है कि यह एक गलत, अदूरदर्शी और स्वार्थी किस्म का राष्ट्रवाद है, जिसके लिए इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है।
[envoke_twitter_link]यह किताब आपको कई असहज कर देने वाले लेकिन जरुरी सवालों की तरफ ले जाती है।[/envoke_twitter_link] जे.एन.यू. में हुए घटनाक्रम से इस राष्ट्रवाद को कसौटी पर कस लिया गया है। क्या यही वह देश है जिसके लिए हमसे निष्ठावान रहने की उम्मीदें की जाती हैं, जहाँ छात्रों, पत्रकारों और खुली सोच वाले लोगों का मुंह बंद कर दिया जाता है, यहाँ तक कि उनका क़त्ल भी कर दिया जाता है? आपको भी पूछना होगा कि, क्या आप भी पिछले सत्तर सालों से चली आ रही इस विचारधारा जिससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता के गुलाम हैं। जहाँ एक और राष्ट्रद्रोह के इस मुद्दे को इतना बड़ा बना दिया गया, आपको यह भी पूछना चहिये कि क्या कहीं यह मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का एक प्रयास तो नहीं था। आपको सवाल करना होगा कि क्या यह ‘राष्ट्रवाद’ सबसे बड़ी विडम्बना ‘बांटो और राज करो’ की नीति का नया रूप तो नहीं है।
For original article in English click here.