गांव – यह वह शब्द है, जिसको सुनते ही जेहन में सम्पूर्ण भारतवर्ष की तस्वीर उभर आती है और उभरे भी क्यों नहीं जब देश की लगभग 69 प्रतिशत आबादी ग्रामीण हो। जब देश की लगभग 31 प्रतिशत शहरी आबादी की दिनचर्या का मूल आधार (रोटी,पानी और मकान) इसी 69 प्रतिशत आबादी पर टिका हो। ऐसे में जब कोई “तथाकथित विद्वान सम्पादक” महोदय अपने सम्पादकीय में टिप्पणी करते हैं कि – “भारत में हजारों गांव ऐसे हैं जहां लोग बिजली चोरी करना अपना अधिकार समझते हैं।” तो एक ग्रामीण और किसान-पुत्र होने के नाते आक्रोशित होना स्वाभाविक है। यहां इस तथ्य पर गौर करना आवश्यक हो जाता है कि भारत में हजारों गांव ऐसे भी हैं, जहां बिजली की पँहुच तक नहीं है – छोटी ढाणियों और खेतों में बसने वाले घरों की गिनती इस से अलग है। वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर लिख देना बहुत आसान है। धरातल पर जाकर अध्ययन करने पर मालूम होता है कि [envoke_twitter_link]गांव और किसान दोनों की स्थिति बेहद दयनीय है[/envoke_twitter_link] वरना, कोई अपनी जान यूँ ही नहीं गंवा देता।
मौसम और बिमारियों की मार से बचकर (ऐसा कभी-कभार ही हो पता है) अगर फसल घर में आ भी जाती है तो व्यवस्था का कुचक्र उसे औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर कर देता है। समर्थन मूल्य बढ़ाने के नाम पर सरकार हर बार किसान की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का कार्य कर रही है। संसद हो या विधानसभा “गणमान्य” अपनी वेतन वृद्धि का प्रस्ताव “ध्वनि-मत” से पारित करवा लेते हैं कभी मतदान की नौबत नहीं आने देते, वहीं किसान हितैषी विधेयक बहस में फंस जाते हैं। इसके अतिरिक्त अगर पिछले 30-35 सालों के दौरान सरकारी हुक्मरानों की वेतन वृद्धि और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की वृद्धि पर ध्यान दिया जाये तो जमीन-आसमान का अंतर नजर आता है। दूसरी तरफ, जिस दलहन को किसान ₹ 30-40 प्रति किलो के हिसाब से बेचने को मजबूर है, उसी को दाल के रूप में ₹ 150-200 प्रति किलो की दर से खरीदना वाकई में कष्टकर है।
इन सबके बाद मुआवजे की शिथिल नीतियां किसान और किसानी के खात्मे के लिए जिम्मेदार हैं। एक तरफ खराबे का मुआवजा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, वहीं फसली ऋण के लिए बैंक सिर पर सवार रहते हैं और ये सब गांव के एक किसान के साथ होता है, क्योंकि अंबानी, अडानी, माल्या जैसे धनाढ्यों की चौखट पर सरकारी नियम दम तोड़ते नजर आते हैं। बैंकों के ₹ 9000 करोड़ चट कर जाने वाला गांव का व्यक्ति नहीं है। गांव का व्यक्ति मेहनत और ईमानदारी के बल पर जीवन व्यतीत कर रहा है, क्योंकि उसका पेट छोटा है।
गांव के निवासियों के प्रति ऐसी तुच्छ मानसिकता का परिचय देना आसान है लेकिन, सफेदपोश डकैतों के खिलाफ बोलने में रूह कांप उठती है इनकी। गांव का व्यक्ति आज भी मूल सुविधाओं से मरहूम है – फिर भी खुश है क्योंकि उसके हल और कुदाल किसी सम्पादक महोदय की कलम की भांति ‘बन्दी’ नहीं है। गांव के व्यक्ति के इसी अंदाज को देखकर शायद गांधी जी ने कहा था – “मेरे सपनों का भारत गांवों में बसता है।” और आज मैं गर्जना करता हूँ (निवेदन का समय नहीं है अब) – “गांवों पर अंगुली मत उठाइये, गांव उजड़े तो देश उजड़ जायेगा और साथ में उजड़ेंगे – आप।”
जय जवान, जय किसान।
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