“दिल्ली आउ बाम्बे मा होवइया दुस्करम के चरचा आउ ओखर आक्रोस पूरा भारत मा होथे फेर छत्तीसगढ़ के घटना मा जमोकोनो आंखी काबर मूंद लेथे?” (दिल्ली और मुम्बई में होने वाले दुष्कर्म की चर्चा और उसे लेकर आक्रोश पूरे भारत में होता है लेकिन छत्तीसगढ़ की घटना पर सभी क्यों आंख बंद कर लेते हैं?)
एक सवाल के रूप में ये संदेश छत्तीसगढ़ के एक ग्रामीण ने व्हाट्सएप्प के ज़रिए मुझे भेजा। शब्दों में व्याप्त पीड़ा शायद दिल्ली के लिए एक आईना हो सकती है, मीडिया के लिए टी.आर.पी. वर्धक ना होने की वज़ह से अनुपयोगी हो सकती है। लेकिन एक बेहतर समाज के लिए यह अंसतोष का दर्द काफी चिंताजनक है।
समाज में बढ़ रही बलात्कार की घटनाएं एक चुनौती तो हैं ही, लेकिन इन घटनाओं का हम तक अलग-अलग अंदाज में पहुंचना और कुछ घटनाओं का ना पहुंचना या अनदेखी किया जाना भी कम पीड़ादायक नहीं है। आज के युग में किसी भी मुद्दे का फैलाव एक बड़े स्तर पर तभी हो पाता है जब मीडिया के ज़रिए वह जनमानस तक पहुँचता है। मीडिया के द्वारा उन ख़बरों को दिए गए स्पेस से और प्रस्तुतीकरण के तरीकों से समाज पर उसका व्यापक असर देखा जा सकता है। परिणामस्वरूप दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड पर समूचा भारत एक सुर में सुर मिलाकर आंदोलित नज़र आया, बलात्कार के विरोध में यह ऐतिहासिक घटना साबित हुई। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि जब निर्भया काण्ड से उपजे आक्रोश का विस्तार पूरे भारत में हो रहा था तब छत्तीसगढ़ के एक गाँव में भी कुछ दरिंदो ने एक मासूम का बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी थी, उस मासूम को ‘निर्भया’ नाम नहीं मिला, नाम तो दूर की बात है, कथित राष्ट्रीय मीडिया ने उस घटना पर अपना एक मिनट भी व्यर्थ नहीं किया, जबकि दिल्ली, मुम्बई और अन्य महानगरों के आस-पास की ख़बरों को बराबर तरज़ीह दी जा रही थी।
मीडिया चैनलों के द्वारा दिल्ली को बलात्कार की राजधानी बताया जा रहा था, लेकिन ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्युरो’ के आंकड़ों के अनुसार उस समय सबसे अधिक बलात्कार छत्तीसगढ़ के दुर्ग-भिलाई के इलाकों में हुए थे। 2011 में दिल्ली में प्रति एक लाख की आबादी में 2.8 बलात्कार हुए जबकि दुर्ग-भिलाई में ये औसत 5.7 का दर्ज था। लेकिन मीडिया की नज़र में छत्तीसगढ़ में बढ़ रहे बलात्कार के मामलों का कोई राष्ट्रीय महत्व नहीं था- जिसकी चिंता की जाए तथा पुरे देश को इससे रूबरु कराया जाए, जिससे इन घटनाओं के खिलाफ़ जनमत बन सके, शायद तब ‘दुर्ग’ का ‘दिल्ली’ ना होना मीडिया के लिए अहम रहा हो।
अभी कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की अदालत ने तीन वर्ष की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के जुर्म में एक युवक को फांसी की सज़ा सुनाई है। अगर मीडिया चाहता तो इस घटना का कवरेज कर इसे देश के समक्ष रख सकता था, ताकि इस दरिंदगी के विरुद्ध भी देश आक्रोशित हो और इसकी भर्त्सना करे। जिससे ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति ना होने पाए।
कुछ और भी उदाहरण है जिसमें मीडिया ने महानगरों के मुकाबले गैर महानगरीय संवेदनशील मामलों की बराबर अनदेखी की। 2 अगस्त 2012 को चलती ट्रेन में सात साल की बच्ची से बलात्कार के बाद बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के पास उसे लावारिस हालत में छोड़ दिया गया। 7 जनवरी 2013 में बस्तर के कांकेर में एक बलात्कार का मामला सामने आया जिसमें आदिवासी छात्रावास में रहने वाली 11 बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया गया। दिसम्बर 2015 में सामुहिक दुष्कर्म के बाद एक महिला को जिंदा जला दिया गया। 12 जून 2016 को दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिस कांस्टेबल पर 13 साल की एक बच्ची से रेप करने का आरोप लगा। लेकिन राष्ट्रीय मीडिया को इन सबकी परवाह नहीं रही।
मीडिया के इस दोहरे चरित्र को लेकर आज बहुत सारे लोग आक्रोशित हैं, इस दुख के मूल में 23 मई को हुए सारंगगढ़ क्षेत्र की दर्दनाक घटना है जिसमें 15 वर्ष की एक मासूस के साथ पाँच युवकों ने दुष्कर्म किया। इस घटना से व्यथित युवती ने कीटनाशक का सेवन कर लिया, घर वालों को पता चलने पर उसे जिला चिकित्सालय में भर्ती कराया गया जहां से हालत बिगड़ने पर युवती को रायपुर के मेकाहारा अस्पताल में रेफर कर दिया गया। फिर सरकारी अस्पताल में स्वास्थ्य बिगड़ता देख उस लड़की के परिजन उसे एक निजी अस्पताल ले गए जहां पीड़िता को आईसीयू में रखा गया फिर निजी अस्पताल प्रबंधन ने उनके परिजनों को एक लाख का बिल थमा दिया। इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था कर पाना मजदूरी करने वाले माता-पिता के लिए नामुमकिन था। परिजनों का आरोप है कि इसी वजह से गंम्भीर हालत में भी युवती को आई.सी.यू. से बाहर निकाल दिया गया। फिर समाज के कुछ लोगों के हो-हल्ला किए जाने पर उसे दुबारा आई.सी.यू. में ले जाया गया लेकिन जल्द ही युवती ने दम तोड़ दिया। अस्पताल प्रबंधन ने उस लड़की के शव को बंधक बनाए रखा ताकि परिजन बकाया बिल देने के लिए राजी हो जाएं, लेकिन मज़दूर माँ-बाप के पास बिलखने के अलावा कोई चारा नहीं था। किसी तरह युवती की पार्थिव देह तो गरीब माता-पिता के हवाले कर दिया गया लेकिन बलात्कार, मौत और फिर व्यवस्था के द्वारा किए गए बलात्कार से छत्तीसगढ़ दहलता रहा।
लेकिन क्या इस दर्द का विस्तार देश भर में हुआ? क्या व्यवस्था की नाकामी और गरीबी की वज़ह से पीड़िता ने मरने के बाद भी जो तकलीफ सही उससे भारत का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो पाया? कितने लोगों के भीतर आक्रोश पैदा हुआ? या कितने लोगों को इस घटना की जानकारी मिली? इन सवालों पर हम सब निरूत्तर हैं, क्यूंकि सूचना और संचार के ताकतवर माध्यम मीडिया के लिए यहां की घटना महत्वपूर्ण नहीं है।
छत्तीसगढ़ के महेश मलंग इस मामले पर कहते हैं कि दिल्ली और छत्तीसगढ़ की निर्भया मामले में अंतर होने की वज़ह दूरी नहीं बल्कि मीडिया की सतही नज़रिया है, उसका चश्मा है, जिसमें वह देखता है कि ये बिकाऊ है या नहीं, टी.आर.पी. बँटोरू है कि नहीं, उसमें कुछ मसाला है या नहीं, इसलिए जैसा कवरेज दिल्ली की निर्भया का हुआ वैसा छत्तीसगढ़ की निर्भया का हो ये संभव नहीं है।