लेकिन इस चूक की वज़ह से हुई मौत की भरपाई, शासन और उनकी योजनाओं पर से उठते विश्वासों की भरपाई कौन करेगा? ऐसे हादसों की जिम्मेदारी कौन लेगा? ऐसी कौन सी वज़ह है कि ऐसी घटनाएं आम हो रही हैं? ऐसे तमाम सवालात आज हमारे सामने है जो हमारे लोकतांत्रिक समाज के लिए किसी ख़तरे से कम नहीं है।
2011 में बालोद में मोतियाबिंद आपरेशन के लिए शिविर लगाया गया था जहां 46 लोगों की आंखो की रौशनी शासन की चूक से अंधेरो में तब्दील हो गई थी। शासन की योजना से लाभान्वित होने के लिए आए ग्रामीणों की रौशनी भरी उम्मीदों में अनायास अंधेरा छा गया था। आमतौर पर शिविरों में वे लोग आते हैं जो बड़े-बड़े अस्पतालो में इलाज कराने की हैसियत नहीं रखते, वे ईलाज के लिए शासकीय योजनाओं पर ही निर्भर होते हैं, पर ऐसी ह्रदय विदारक घटनाओं के दुस्प्रभाव से उनका विश्वास और हौसला टूटता दिखाई दे रहा है।
यह एक मौका था सरकार के पास कि वो आगे से सावधानियां बरते और खाद्य तथा औषधियों पर मानकों के प्रति कठोर रवैया अपनाकर स्वार्थनिहित चूकों की आजादी की बजाय नियमों के पालन में सख्ती से पेश आएं… लेकिन 8 नवम्बर 2014 को बिलासपुर जिले के सकरी, पेंड्रा, गौरेला और मरवाही में जो कुछ हुआ वह छत्तीसगढ़ सरकार की कलई खोलने के लिए काफी है।जब वहां लगे नसबंदी शिविरों में अमानक दवा ‘सेप्रोसीन’ की वज़ह से 11 महिलाओं की मौत हो गई थी और उसी समय ये ज़हरीली गोलियां खाकर और पांच लोग भी कालकलवित हुए थे, तब छत्तीसगढ़ की सरकार कार्यवाही करने की बजाय इस मामले की लीपापोती में लग गई थी। गमगीन जनता के आंसुओं को नज़रअंदाज़ करते हुए मुख्यमंत्री का बयान आया था, ‘’स्वास्थ्य मंत्री को इस्तीफा देने की कोई ज़रूरत नहीं है,उन्होंने थोडे ही आपरेशन किया है..’’
वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री साहब उपलब्धियों की पगड़ी अपने सर बांधकर स्वयं को चाऊँर वाले बाबा कहलवाने में कतई परहेज़ नहीं करते।
खैर सवाल यहां राजनीतिक बयानबाजी का नहीं बल्कि शासनतंत्र की लापरवाही से पीड़ित लोगों को मिल रही मानसिक यंत्रणा की है, जो शासन की योजनाओं में बतौर सहयोगी या लाभार्थी शरीक होते हैं। मगर तंत्र की सत्तानीहित स्वार्थ या लचर व्यवस्था की वज़ह से जनता के हिस्से में अंधकार और मौत के सिवा कुछ नहीं आता। परिणाम स्वरूप लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सहभागिता कम होने लगती है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में हुए अँखफोड़वा कांड और नसबंदी कांड के बाद लोग सरकारी शिविरों में जाने से हिचकने लगे हैं। अब यही स्थिति फिर से पैदा होती दिखाई दे रही है अब मौत के मुँह में कौन अपने बच्चों को झोंकना चाहेगा। कुलमिलाकर आम जनता के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं से जनता का मोहभंग होता जा रहा है। साथ ही ये पीड़ित तबका खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा है। ऐसे में व्यवस्था से विश्वास का उठना आश्चर्य वाली बात नहीं है लेकिन चिंताजनक ज़रूर है, क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत या उद्देश्य में लोगों की सहभागिता बढ़ाना है ना कि ऐसे कृत्यों के मार्फ़त डर और अविश्वास पैदा करना। जनता को अच्छी नीतियों के साथ-साथ अच्छी नीयत की भी दरकार है ताकि फिर कोई अमृत योजना किसी के लिए ज़हर बनकर प्राण घातक ना बनने पाए।