एक घटना जिसने मुझे आज उतना ही झकझोर करके रख दिया जितना दिसम्बर 2012 के “निर्भया काण्ड” ने किया था। बस एक चीज जो मुझे अतिरिक्त लगती है वो है उसका दलित होना और एक चीज जो मुझे गायब लगती है वो कड़ाके की ठण्ड में इंडिया गेट पर हाथ में मोमबतियां लिए देश भर के मुर्दों का इकठ्ठा होना। या फिर बजाय इसके मैं जिन्दा लाशों का कहूँगा।
उसे नया नाम देकर, उसके नाम से जाति हटाकर सब उस जघन्य घटना पर इंसानियत दिखाकर उसके लिए न्याय की मांग कर रहे थे। मैं सुबह 6 बजे आकर दिल्ली एयरपोर्ट के पास वाले बस स्टैंड पर उतरा था पर अपने काम से। जाड़े ने मेरी टांगों ने को इतना शून्य कर दिया था कि 5 मिनट के लिए खड़ा हो पाना मुश्किल हो रहा था पर उस दृश्य ने एक पल में यह सब भुलाकर दुसरे ही भारत में पहुंचा दिया था।
आज फिर एक कक्षा 4 की मासूम निर्भया के साथ बलात्कार हुआ है। ठण्ड भी पहले से जरा कम है पर इंडिया गेट है कि फिर भी सूना है। वो लाठियां खाती और इतनी ठण्ड में पानी की तेज बौछारें झेल रही भीड़ गायब है, वो मोमबतियां हाथ में लिए नारे लगाते जोशीले युवा गायब हैं।
न जाने किस जाति के रहे होंगे वो लोग, या फिर सब धर्म-सब जाति के लोग जो निर्भया के नाम से जाति छिपाने के कारण इकट्ठे हो पाए होंगे। जो कुछ भी इसके पीछे सोच रही होगी पर उसके लिए न वो निर्भया जिम्मेदार रही होगी ना ही यह। उनके साथ जब बलात्कार हुआ, जब उनके गुप्तांगों में सरिये और गन्ने ठूंसे गए तब वो दोनों शायद इस बारे में नहीं सोच रही होगी। दरअसल वो सोच तब हमारे दिमाग में पल रही होगी।
उसका दलित होना उसके पक्ष में नहीं गया या फिर उसके मां-बाप का मांग-मांगकर गुजार बसर करना।
स्कूल से आने के बाद गन्ने के खेत में पशुओं के लिए चारा चुनने गयी उस मासूम के साथ बलात्कार किया गया। फिर भी मन न भरने पर उसके नाजुक निजी अंगों में गन्ना ठूंस दिया गया। उफ्फ, कितना दर्दनाक और भयावह रहा होगा उस 10 साल की लड़की के लिए ये सब।
पिछला किस्सा देखता हूँ तो मीडिया का बड़ा योगदान रहा था तब। सारे मुद्दे भूलकर सिर्फ इस पर बात रखी गयी जिसका परिणाम भी हुआ। पर अब मीडिया भी गायब है। शायद मीडिया को उसका दलित होना गवारा नहीं। उनके समाचार पत्र, चैनल अछूत हो जाते होंगे शायद इसका कवरेज करते हुए. खैर, जो मसला रहा होगा, यह उनका अपना धंधा है, इसमें दखलंदाजी करने वाला मैं कौन होता हूँ।
उनकी वही जाने, क्या छापना है क्या नहीं यह उनका निर्णय होगा. कब कहना है कि भारत में जातिगत भेदभाव ख़त्म हो गया, कब नहीं. उस कार्यक्रम में मौजूद किस सख्श को दलित चिंतक बोलना है किसको मनुवादी चिन्तक/सवर्ण चिन्तक……नहीं। नहीं, ये नहीं हो सकता। मुझे जाने क्यूँ लग रहा कि इस दुसरे टैग से मेरा पाला पहली बार पड़ रहा है। खैर, फैसला फिर भी उनका ही होगा।
जिनके चैनल वही जानें, पर आप-हम को यह क्या हो गया?
कडाके की ठण्ड में पानी तेज की बोछारें और लाठियां झेलकर इंसानियत उस भीड़ को यह क्या हो गया? मोमबतियां हाथ में लिए नारे लगाते उन युवाओं को यह क्या हो गया?
देश का युवा और उनकी इंसानियत को शायद कुछ अलग चाहिए। जो बात आम है भला उसके लिए ये सब क्यूँ किया जाय। बोरिंग होती है, है न?
सवाल काफी हैं पर किसके पास जाया जाय जवाब के लिए? लाल किले का वो परिसर सूना है. वो मोमबतियां हाथ में लिए लाठियां, पानी की बौछारें झेलती वो भीड़ गायब है। अब वो सड़कें सूनी है।
या फिर मीडिया ने उस प्रवाह के साथ इस बात को उन तक पहुँचने ही नहीं दिया। उन्हें भी तो बोरियत होती होगी एक जैसी खबरे करते हुए, चूँकि उस वर्ग के लिए यह रोज की बात है जिस वर्ग से वो आती थी। समाचार पत्र, चैनलों को भी तो अछूत होने से बचाना पड़ता होगा। इसलिए कुछेक ने इसे चुटकी से छुआ है जैसे हम मरी छिपकली या ऐसी किसी अन्य गन्दी वस्तु को उठाकर साइड में रखते हैं या फेंक देते हैं।
उन जगहों पर ज्यादा ढूंढने पर हाथ में “Stop Caste Violence”(जातीय हिंसा बंद करो), “Rohith Vemula forever”, “Stop Institutional Discrimination”( संस्थानिक भेदभाव बंद करो) के बैनर लिए या डॉ आंबेडकर की प्रतिमायें लिए कुछ लोग नजर आते हैं।
सुनता हूँ कि रोहित की लडाई भी इसी सोच के खिलाफ थी। उसे अपना बलिदान देना पड़ा। जाने के बाद उसके साथ भी कुछ ऐसा होता दिखाई पड़ता है मुझे। चर्चा हर बार जाकर उसकी जाति पर रूकती दिख रही है, कुछ भी हो जाते-जाते वो एक क्रांति का बीज बो गया, पर शायद उसे जाति साफ़ बताके जाना चाहिए था या फिर सुसाइड नोट के साथ कास्ट सर्टिफिकेट ही छोड़ जाता।
लेकिन यह लिखते वक़्त पूरे रिसर्च के दौरान मैंने जितना खोजा उससे ज्यादा पाया।
कुछेक चैनलों ने “बलात्कार” के अलावा “दलित के साथ बलात्कार” नाम का अलग टॉपिक/टैग बना रखा है तो किसी ने इस नाम से अपनी वेबसाइट पर एक अलग पोटली. जहाँ इस तरह का कचरा डाल दिया जाता है।
फिर सोचता हूँ, तो क्या इनमें से एक भी निर्भया कहलाने के लायक नहीं थी? सब मिलकर एक निर्भया भी नहीं क्या?