By Pinjra Tod:
10 Dalit safai karamcharis (8 women and 2 men) of Undergraduate Hostel for Girls (UGHG) in the Dhaka complex of University of Delhi have been on an indefinite sit-in dharna outside the hostel complex in protest against their unjust and illegal dismissal from work since 1st of January. They had been working in this hostel from 4th October 2012, which is when this new hostel opened as well.
Last year, these women had led a militant struggle against caste discrimination by the hostel supervisor Shaina Begum appointed by the Provost Rita Kakkar. When the workers had complained to the Provost last year in July about the behaviour of the Supervisor and the casteist abuses she hurled at them, the Provost refused to take any action. The workers had hence approached the SC/ST Commission with their complaint, after which the Supervisor was removed from work and a settlement was reached on 24th Nov’15. From the next day itself, the workers started hearing that the current contractor SULABH would be changed. One month later this change took place. The workers collected their monthly salary on 31st Dec. When they showed up for work the next day on 1st Jan’16, the guard had a list of 10 workers who were told that they have been dismissed from work. These were the same workers who had raised their voice against the caste discrimination they had experienced at their workplace, while 6 other workers had been retained.
The University of Delhi is the principal employer in this case, and this is a clear case of caste discrimination of Dalit workers by the university, even if it is trying to silence the matter by claiming it’s about the contractor. The workers have been targeted and ‘penalised’ by the university hostel administration for raising their voice. This is not unfamiliar to us. Hostel administrations constantly also repress voices of women students who have dissented. In the same Undergraduate Hostel for Girls, there is a rule in the official hostel rule book that disciplinary action could be taken against women residents for raising issues such as shortage of water and we have documented cases of women students who have been expelled from this same hostel, that we have submitted as complaints to the Delhi Commission for Women. Even right now, women residents are under tremendous pressure by the administration to not support the workers’ struggle and are being threatened.
The conditions of work under the sub-contract of SULABH were also extremely precarious: low pay, no PF or medical leave, no pay for overtime, no health and safety regulations, no compensation for accidents at work: the list is endless. This is not unique to UGHG, women safai karamcharis across hostels are subject to similar exploitative conditions of work under increasing sub-contractualisation of work. This also reflects how the university administration reproduces the oppressive structures of patriarchy that devalues paid care and reproductive work performed by women.
We stand in solidarity with the struggle of the Dalit women workers against this Brahminical patriarchal university administration that binds us in cages and shackles and constantly seeks to repress and silence any voice and effort against dismantling its oppressive regime. The struggle of the Dalit women workers in University of Delhi becomes particularly important at this juncture where students across the country are rising up in protest against the intrinsic caste violence that characterize our university spaces.
एक दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रावास की दलित महिला मज़दूरों द्वारा विश्विद्यालय समुदाय को खुला पत्र
हम अनडर ग्रेजुएट होस्टल फॉर गर्ल्स की कर्मचारी हैं| हमने इस हॉस्टल में बहुत मेहनत की है| आज जब ये हमें निकाल रहे हैं तो क्या आप कुछ नहीं बोलेंगे? ज्यादा नहीं तो दो लव्ज़ में पूछ तो लीजिये, “मैडम, इन लोगों को क्यों निकला गया है?”
आप बच्चों के लिए बहुत कुछ किया है| जिसे सफाई चाहिए थी उसे बेहतर से बेहतर सफाई दी है| जो दुखी था उसे हसाया है, जिसकी तबियत ख़राब थी उसकी सेवा की है| हर सुख दुःख में में हम आपके साथ खड़े रहे| आज हमें आपके साथ की ज़रुरत है|
प्रोवोस्ट की माँ की मृत्यु के बाद प्रोवोस्ट मैडम की सहकारी शाइना मैडम को हमारी सुपर्वाइज़र बना दिया गया| 2-3 महीने बाद उनका बर्ताव हमारे प्रति बेहद बुरा हो गया| वह हमें गालियाँ देतीं| कहतीं, “तुम चूड़े चमार लोगों का दिमाग नहीं होता| तुम लैट्रिन साफ़ करते हो, कचड़ा उठाते हो| तुम्हारे हाँथ का पानी भी लोग कैसे पी लेते हैं!” मानों हमारे सफाई किये बिना ही यह होस्टल इतना जगमगाता है, और सभी बच्चे और मैडम भी साफ़ सफाई से रहती हैं| वहीँ शाइना मैडम हमारे साथ छुआछूत का व्यवहार करती थीं और हमसे एक कोस की दूरी बना कर ही चलती थीं| जब यह व्यवहार हमारे लिए असहनीय हो गया तो हमने इसकी शिकायत प्रोवोस्ट मैडम से की| इन्होंने भी हमारी बात का अनसुना कर दिया| इसके बाद हमने एससी/एसटी कमीशन में अपनी शिकायत दर्ज कराने का फैसला लिया| वहां से पूछताछ शुरू होने पर इन्होंने दबाव के अन्दर हमसे समझौता करने की बात उठाई| प्रोवोस्ट के दफ्तर में हम कुछ लोगों और सुलभ के हमारे अधिकारीयों को ले जा कर हमसे कहा गया की शाइना मैडम बुज़ुर्ग हैं और हमारी शिकायत से उन्हें जेल हो सकती है, इसलिए हम अपनी शिकायत वापस लेलें| किसी का बुरा ना चाहते हुए हमने समझौता मान लिया| लेकिन इसके एक दो दिन बाद से ही हमें खबर आने लगी की हमारा कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने वाला है| 31 दिसंबर को हमारी सैलरी दे कर 1 जनवरी को जब हम काम पर आये तो हम 8 औरतों और 2 आदमियों को गेट के अन्दर नहीं जाने दिया गया| तब से आज एक महिना होने को आया हम इसी गेट के सामने अपने लिए न्याय मांगती हुई बैठी हैं|
होस्टल में काम करते हुए हमने अन्दर की कई बातें देखि हैं| यह लोग खाना फ़ेंक देते हैं पर बच्चों को और हमें नहीं देते| काम करते समय एक कप चाय भी हमें नहीं दिया जाता था| ईएसआई-पीएफ भी कभी नहीं मिला| तीन साल लगातार यहाँ हर रोज़, सरकारी छुट्टी तक ना पा कर काम करने के बाद भी हमारे पास कोई पहचान पत्र नहीं है, नाही हमारी नौकरियां पक्की हुई हैं| काम करने के समय चोट आने पर भी हमें दवाई तक का खर्च नहीं दिया जाता था| अक्सर काम करते हुए 8 से 10 घंटे निकल जाते थे| इतना बड़ा होस्टल साफ़ करने के बाद हमें प्रोवोस्ट और वार्डन मैडम का घर भी साफ़ करना पड़ता था, जिसके कोई अलग पैसे नहीं मिलते थे| कभी उनके घर मेहमान आ जाएँ तो हमें और भी देर तक रुकना पड़ता था| अपनी रोजीरोटी के लिए हम यह सब भी हम चुपचाप झेलते रहे| सहनशीलता की हद तक पहुँच कर हमने अपनी समस्याएं बतायीं, लेकिन समाधान की जगह हमें सज़ा दी गयो है|
हमारी हालत का प्रमुख ज़िम्मेदार यह विश्वविद्यालय ही है, जो ऐसे तो ज्ञान की बातें करता है पर दरअसल अन्याय की राह पर चलता है| क्या यह विश्वविद्यालय हमें यही शिक्षा देता है की मेहनत से रोटी कमाने वालों की बेइज्जती की जाए, उनका उत्पीड़न किया जाये, और अगर वह अपने स्वाभिमान के लिए दो बात कहें तो उन्हें सड़क पर ला छोड़ा जाये? हम सब काम करने वाली औरतें हैं, अपना घर अपनी तनख्वाह से चलाते हैं| हमारी नौकरी तो चली गयी है, पर हमारे किराये का बोझ, हमारे बच्चों और रोटी का खर्च वैसा का वैसा है| इन्हीं होस्टलों में से एक का नाम आंबेडकर के नाम पर रखा गया है| उसी के बगल में हमें अभी भी छुआछूत और जाति के नाम पर गालियां सुनने को मिल रही हैं| हम पढ़े लिखे नहीं हैं पर यह घोटाला हमें भी नज़र आ रहा है, तो आपको क्यों नहीं दिख रहा?
हम उम्मीद करते हैं कि हमें इस अन्याय के खिलाफ लड़ने में आप सबका सहयोग मिलेगा!
सप्रेम,
मंजू, विमलेश,शांति, कांता, फूला, पिंकी, पुटुल, आशा
Take campus conversations to the next level. Become a YKA Campus Correspondent today! Sign up here.
You can also subscribe to the Campus Watch Newsletter, here.