मैं तमाशा पिक्चर के उसी शो में था जिसका वीडियो आज सुबह से ऑनलाइन चल रहा है जिसमें एक फ़ैमिली को लोगों ने नैशनल ऐन्थम के समय न खड़े होने की वजह से हॉल से निकाल दिया गया। कमाल की बात ये है कि ‘Times Of India’ की वेबसाइट को ये नहीं पता कि हॉल बैंगलुरु का है या मुम्बई का लेकिन फ़ैमिली ‘मुस्लिम’ थी ये पता है।
मुंबई में फ़िल्म शुरू होने से पहले स्क्रीन पर लिखा आता है ‘please stand up for national anthem’ (कृपया राष्ट्र गान के लिए खड़े हो जाॅंए)। नैशनल ऐन्थम खड़े न होने पर कोई legal implication (कानूनी निहितार्थ) नहीं है। हालाँकि ये बात घ्यान में रखना चाहिए कि जब भी नैशनल ऐन्थम बजे तो आप उसको तिरस्कार करने वाली कोई बात न करें।
ख़ैर ये बात सच है कि वो फ़ैमिली नैशनल ऐन्थम पर बैठी रही थी। जैसे ही नैशनल ऐन्थम ख़त्म हुई तुरंत गंजे वाले अंकल ने गरियाते हुए कहा, “Fucking, you have to stand for it” (तुम्हे खड़ा होना चहिए था)। अंकल ने जब यही लाइन कई बार अलग अलग ‘टोन’ में रिपीट करके कही तो भीड़ इकट्ठा होने लगी। उस फ़ैमिली ने बोला, ‘खड़े नहीं हुए इसका ये मतलब नहीं कि respect (आदर) नहीं करते।’
इस पर अंकल ने कहा, ‘रिस्पेक्ट कैसे नहीं देगा तू, fucking, you have to stand for it (तुम्हे खड़ा होना चहिए था) मेरी फ़ैमिली के बहुत सारे लोगों ने इसके लिए जान दी है।’
भीड़ में से एक बंदा बोला ‘बॉस मेरा पैर टूटा हुआ था फिर भी मैं खड़ा होता था।’
भीड़ में कई सारे लोग अलग-अलग टोन में कुछ-कुछ बोलने लगे। धीरे-धीरे शोर और भीड़ बढ़ते गए। PVR के कर्मचारी आ गए और स्क्रीन पर चल रहे ट्रेलर को रोक दिया गया। उन्होने आकर उस फ़ैमिली को वहाँ से बाहर निकलने को कहा। फ़ैमिली के बाहर जाते ही आधे हॉल ने ताली बजायी। तमाशा फ़िल्म शुरू होने से पहले अच्छा ख़ासा तमाशा हो चुका था। फ़िल्म का माहौल सेट हो चुका था।
मैं ये जानता हूँ कि उस फ़ैमिली को खड़े होना चाहिए था out of respect (सम्मान की खातिर), आख़िर केवल 52 सेकंड के लिए खड़े होने के लिए ऐसे भी क्या नख़रे। दूसरी तरफ़ ये देशभक्ति उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक है कि कोई आदमी फ़ैमिली के साथ है और आप उसको फ़्री फ़्लो में गालियाँ देना शुरू कर दो और हॉल से बाहर निकाल दो ।
हिंदुस्तान में देशभक्ति की औक़ात अगर बस इतनी है कि पिक्चर हॉल में जो खड़ा हो गया वो देशभक्त हो जाएगा तो सनम ऐसी देशभक्ति हमें ले डूबेगी एक दिन।
जब वो फ़ैमिली हॉल से निकली थी तब वो केवल फ़ैमिली थी। मीडिया में आते ही वो ‘मुस्लिम’ हो गयी। हाल में उनसे लड़ने वाले लोग ‘केवल हिन्दू’ नहीं थे लेकिन मीडिया में वो सारे लोग हिन्दू हो गए।
भीड़ में अल्पसंख्या में होना अगर ख़तरनाक है तो बहुसंख्या में होना ज़्यादा ख़तरनाक। उस दिन की असली कहानी तो ये ही थी। बात ये है कि हम तक कहानी पहुँचने में कितने तड़के लग चुके होते हैं ये कोई नहीं जनता। सच तड़का लगने के बाद, केवल सच लगता है पर होता नहीं।