To whom does the city belong? To really answer this question we need to think beyond property and possession, and see things in terms of home and a sense of belonging. These young Delhiites will share stories about their city in this column. It is a city with its ears close to the ground, made up of narrow bylanes, street corners, tea stalls and numerous places where people meet and talk. The writers have emerged from collectives engaged in writing practices hosted by Ankur Society for Alternatives in Education in Delhi’s working class neighborhoods.
आरती अग्रवाल:
पूरा टांड सामान से खचाखच भरा था और धूल के कणों में नहाया अपनी सफेदी भी खो चुका था। माया ने पूरी ताकत के साथ हरे वाले गट्ठर को उठा फेंका ही था कि कानों में गूँजती आवाज़ ने सावधान कर दिया, “अरी माया तूने तो सब नहाया-धोया एक कर दिया। तुझे आज का दिन ही मिला था ये सब ताम-झाम निकालने के लिए!”
“अरे जीजी, इनकी बाट में कान रोजाना घर से बाहर ही रहते हैं। पर आज जैसे ही आवाज़ पड़ी तो रोक लिया,” कहते हुए उसने पल्लू को पीछे कर गट्ठर को खोला ही था कि उसमें से झांकते हरे चमकदार सूट को आहिस्ता से खींच अपनी गोद में फैलाकर देखने लगी। वह मुस्कुराती हुई बोली, ‘‘अरे ये तो नोनू की शादी में खरीदा था। इसमें कब डाला? मेरी भी मत मारी गई है।”
असंमजस में उसने गठरी को दरवाजे की ओट में रखा ही था कि कंधे पर एक नीला टॉप टांगे लड़के ने तेजी से कहा, “अरे आंटी, देना है तो दे दो! क्या तमाशा बना रखा है! इतनी देर हो गई। बेवकूफ़ हूँ क्या, जो घंटे से खड़ा इंतज़ार कर रहा हूँ।”
उसकी घूरती छोटी-छोटी आँखों ने माया के भीतर एक जल्दबाजी पैदा कर दी थी।
“बस भइया हो गया,” कहते हुए उसने एक-एक कपड़े को खींचते हुए उस टब वाले की ओर बढ़ाती जा रही थी, जिसकी जिज्ञासा हाथ आई एक चमकदार नीली टी-शर्ट के बाद बढ़ती ही जा रही थी। उसकी आँखें तो मानो टी-शर्ट पर ही टिक गई थी। वह उसे उलट-पलटकर देख रहा था। उसकी उचकती भोहें और चमकती आँखें मानो कह रही थी, ‘वाह बेटा, आज तो काम की चीज़ हाथ लग गई।’ बड़े ग़ौर से देखते हुए उसने तेजी से झाड़कर उसे तह करते हुए एक नारंगी पन्नी में डाल दी। पन्नी में डलने वाली शायद यह पहली टी-शर्ट थी। उसे बगल में रख उसने दोनों हाथों से कपड़ों को फिर से छांटना शुरू कर दिया।
माया भी दरवाज़े पर बैठी अपनी मोटी-मोटी आँखों से एक पल टब वाले को देखती तो दूसरे पल उन कपड़ों को निहारने लगती जो छोटी-छोटी ढेरियों में बंधे पूरी चौखट को घेरे हुए थे। कहीं लाल, कहीं सफेद, कहीं हरे तो कहीं जामुनी, नारंगी, पीली व काली चुन्नियों में बंधे ढेर। उनमें से एक-एक कर निकलते सूटों, साडि़यों व टी-शर्टों के ढेर माया को अपनी ओर खींच रखा था। अपने छोटे-छोटे हाथों से एक-एक कपड़े को छांटते हुए वह उन्हें बड़े ग़ौर से देखे जा रही थी। एक-एक कपड़े को देखते हुए और टब वाले की नज़रों से बचाते हुए अब तक उसने काफी जोड़ों को दरवाज़े के पीछे छुपा दिया था।
बाहर लगे ढेर ने आसपास की भीड़ को भी अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया था। माया के बगल वाले घर से निकली अधेड़ उम्र की एक औरत दोनों हाथों को मसलती हुई बोली, “ओ छोरे, एक टब कितने जोड़ों में दे रहा है?”
गठरी से हाथ बिना हटाए, नज़रों को उठाते हुए उसने जवाब दिया, “बस आठ जोड़ों में एक टब।”
यह सुनकर मानो उस महिला के होश ही उड़ गए हों! वह खिसियाती हुई बोली, “हूं, आठ जोड़ों में, ऐसा क्या है तेरे टबों में! यहाँ तो सभी लूटने को तैयार रहते हैं। दूसरों को बस नंगा ही कर देने की सोचते हैं।”
वह बुड़बुड़ाती हुई, माया को देखते हुए अपने घर चल दी। टब वाला भी मुँह मटकाकर उन ढेरियों में खो गया। गट्ठरी के अंदर से आती मरे खटमल की गंध ने गले में बंधे गमछे को मुंह पर बांधने के लिए उसे विवश कर दिया था। एक-एक कपड़े को निकालकर वह झाड़ता फिर तेजी से फटकारता। उलट-पलट कर देखने के बाद उसकी किनारी को छूता और मोटे-पतले होने का अंदाज़ा लगाता और पसंद आते ही अपने थैले में डाल लेता। उसकी गठरी कपड़ों के ढेर से भारी हो चुकी थी लेकिन अभी भी पूरे कपड़े नहीं छंटे थे।
माया जल्द से जल्द कपड़ों के छंटने का इंतज़ार कर रही थी। बड़े ग़ौर से टबवाले को देखते हुए बोली, “अरे भइया क्या छांटा-छांटी कर रहा है? ले जा, सारे बढि़या हैं! वो तो लड़के नहीं पहनते वरना घर में ही काम आ जाते। मेरा बस चलता तो इन्हें बाज़ार में बेच देती।”
माया ने न जाने ऐसा क्या कह दिया था कि टब वाले के हाथ रूक गए और आँखें माया के गोल-मटोल से चेहरे पर टिक गई, उसने देखा और फिर थमते हुए कहा, ”अरे आंटी, अगर दुनिया में ऐसा ही होता तो सब हमें क्यों ढूंढ़ते-फिरते! जितना कहने में आसान है उतना सच में बेचने में नहीं है। हमें पता है कि हम इन्हें कैसे निकालते हैं।” कहते हुए उसने आखिरी बचे गट्ठर को खोला, उस पर धूल की परतों के साथ-साथ दो-चार कीड़े भी सैर कर रहे थे, नाक को सिकोड़ हाथों से कीड़ों को झटकाते हुए उसने गठरी खोला और बिना हाथ डाले ही माया की ओर खिसका दिया।
“क्यों भइया, इसमें क्या हो गया?”
“ऐसे कपड़े हम नहीं लेते!”
“अरे भाई, क्या कमी है ये तो बता? ये तो टांड पर पड़े थे इसलिए कीड़े-मकोड़े लग गए! लो झाड़ दिए!” गठरी को हाथों से झाड़ते हुए माया ने उसे फिर से दे दी, पर वह गठरी हटाते हुए बोला, “अरे, कह दिया न, ऐसे कपड़ों की जरूरत नहीं होती। अब तक मैंने कुछ कहा क्या? रख लो इसे, टाइम बर्बाद मत करो। अगर और हैं तो जल्दी ले आओ। इसमें तो शायद ही कुछ आए!”
वह भौंहें उचकाते हुए बोली, “क्या भाई, तेरी मत मारी गई है क्या। लूटने का धंधा मचा रखा है! ला भाई, मेरे सारे कपड़े दे! जा तू रहने दे। बहुत आते हैं, जिसे भी दूँगी हँसकर लेगा। कल ही बर्तन वाला मांग रहा था पर मैंने मना कर दिया। वैसे भी बर्तन बहुत हैं! तुम लोगों के तो भाव बढ़ रहे हैं। जा भाई जा!” कहते हुए माया ने सारे कपड़ों को अपनी ओर समेटा ही था कि टब वाले को जाता देख वह खिसिया कर बोली, “ठहर जा! अभी ढूंढ़ती हूँ। इनके तो नखरे ही बहुत हैं।”
वो बुदबुदाती हुई अंदर गई और दरवाज़े की ओट में छिपाए जोड़ों में से छह को निकाल कर टब वाले की ओर फेंक दिए, पर बुड़बुड़ाना अभी भी बंद नहीं हुआ था।
“ले इतनी मुश्किल से ढूंढ़कर लाई हूँ। दो तो बिल्कुल नये हैं।”
यह देख टब वाला रूका और उन कपड़ों को देखकर, “ठीक है” कहते हुए बगल से दो टब निकाले और माया की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला, “ये लीजिए आपका हिसाब पूरा हो गया।”
“क्या… इतने कपड़ों में सिर्फ़ दो ही टब।”
“और क्या, अब क्या चार दे दूं!” अपनी गट्ठर को बांध, कंधे पर टिकाते हुए बोला।
“भइया, फिर भी कुछ तो सोचो”
“अगर दो टब नहीं चाहिए तो अपने कपड़े वापस ले लो! मुझे यहाँ कोई टाइम-पास नहीं करना है। एक आप ही खरीदार नहीं हैं।” गुस्से से खिसियाते हुए टब वाले ने माया को निहारा। माया खामोश हो चुकी थी।
“जा भाई जा, रहने दे!” कहकर उसने वही दो टब ले लिए। टब वाले के चले जाने पर भी वह उसे देखती रही।
“ऐसे ही होते हैं! पर क्या करे, गधे को बाप तो बनाना ही पड़ता है।”
खुद में बुड़बुड़ाती हुई वह दोनों टबों को ले अंदर कमरे में चल दी और किचन में जाकर स्लेब पर रखी, पन्नियों में बंधी सब्जियों को एक-एक कर करीने से टब में रखती हुई वह अपने काम में लग गई।